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की पुछऽ हऽ हम्मर हस्ती / सिलसिला / रणजीत दुधु

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की पुछऽ हऽ हम्मर हस्ती,
संग संग हम्मर डोले मस्ती।

ऊपर जो पलक उठावऽ ही,
अम्बर के सैर कर आवऽ ही
पलक झुका जो झाँकऽ ही
पाताल लोक घुम आवऽ ही
जाहाँ हम रात बितावऽ ही
ऊहे बज जा हे हम्मर बस्ती
की पुछऽ हऽ हम्मर हस्ती।

धन के नाम पर हे खोपड़ी
रहे ले बस हे एगो झोपड़ी
नय कइलूँ कहियो नउकरी,
माथा पर जब उठयलूँ टोकरी
मझधार से खींच किनारा तक
कइलूँ कतना जीवन कस्ती
की पुछऽ हऽ हम्मर हस्ती,
संग संग हम्मर डोले मस्ती

हम तो ही सबद के जादूगर
अरथ भरल के जोड़ऽ ही अच्छर
हम ओकरे अदमी बनावऽ ही
जे हे एकदम्मे से बनचर
दोसरे पर सभे समरपित हे
हम्मर जीवन के रस्ती
की पुछऽ हऽ हम्मर हस्ती,

जब तक ऊ छोड़ते रहतय गोली
उठते रहतय अरथी के डोली
तइयेा बोल कलम के बोली
हम ओकरा से लड़ते रहबइ
जे हकय फिरका परस्ती
की पुछऽ हऽ हम्मर हस्ती,
संग संग हम्मर डोले मस्ती

बीतल बात जब जयबा भूल
तब मन के मैल जयतो धुल
नया-नया सब उगतो गाछ
खिलतो नयका नयका फूल
सभे से बढ़ियाँ हँसी-खुशी
कोय मूल्य न´ सभे से सस्ती
की पुछऽ हऽ हम्मर हस्ती,

जब-जब केकरो लोभे घेरे हे
तब-तब आत्मा मुँह फेरे हे
लोभ-मोह में जे भी करे काम,
ओकरा ले ऊहो बखेड़े हे,
मरलो के जिंदा करे हे सँपेरा,
जब हाँके हे अप्पन चिस्ती,
की पुछऽ हऽ हम्मर हस्ती,
संग संग हम्मर डोले मस्ती।