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कुछ कहे जाता था ग़र्क़ अपने ही अफ़्साने में था / शाद अज़ीमाबादी

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कुछ कहे जाता था ग़र्क़ अपने ही अफ़्साने में था
मरते मरते होश बाक़ी तेरे दीवाने में था

हाए वो ख़ुद-रफ़्तगी उलझे हुए सब सर के बाल
वो किसी में अब कहाँ जो तेरे दीवाने में था

जिस तरफ़ जाए नज़र अपना ही जल्वा था अयाँ
जिस्म में हम थे कि वहशी आईना-ख़ाने में था

बोरिया था कुछ शबीना मय थी या टूटे सुबू
और क्या इस के सिवा मस्तों के वीराने में था

हँसते हँसते रो दिया करते थे सब बे-इख़्तियार
इक नई तरकीब का दर्द अपने अफ़्साने में था

दून की लेता तो है ज़ाहिद मगर मैं क्या कहूँ
मुत्तक़ी साक़ी से बढ़ कर कौन मय-ख़ाने में था

पास था ज़ंजीर तक का तौक़ पर क्या मुनहसिर
वो किसी में अब कहाँ जो तेरे दीवाने में था

देर तक मैं टकटकी बाँधे हुए देखा किया
चेहरा-ए-साक़ी नुमायाँ साफ़ पैमाने में था

हाए परवाने का वो जलना वो रानो शम्अ का
मैं ने रोका वर्ना क्या आँसू निकल आने में था

ख़ुद-गरज़ दुनिया की हालत क़ाबिल-ए-इबरत थी ‘शाद’
लुत्फ़ मिलने का न अपने में न बेगाने में था

‘शाद’ कुछ पूछो न मुझ से मेरे दिल के दाग़ को
टिमटिमाता सा चराग़ इक अपने वीराने में था