भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुहरे में भोपाल / त्रिलोचन

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:20, 5 जनवरी 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुहरा ही कुहरा है । इस कुहरे का चलना,

फिरना साफ़ झलक जाता है । घना घना है

इस सफ़ेद चादर का पवन वेग से टलना,

बार बार दिखता है । कितना रम्य बना है,


सूरज का उगना । पूरब के क्षितिज पर दिखी

उषा । पेड़ कुहरे में खोए हैं । पहाड़ियाँ

कहाँ 'अरेरा' कहाँ 'श्यामला'; भूमि पर लिखी

हरियाली के साथ छिपी हैं विरल झाड़ियाँ ।


ठंडक जैसी भी हो, टहला जा सकता है

बड़े मज़े से । सड़कों पर भी कुहरा छाया

है । भोपाल रूप क्या ऎसा पा सकता है

जब चाहे, पुल पास बान गंगा का आया ।


कुहरे का घाटी से उठ-उठ कर लहराना

सर्दी का है अपनी विजय-ध्वज फहराना ।