भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कृष्ण ने कैसौ जुलम गुजारौ / ब्रजभाषा

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:45, 27 नवम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKLokRachna |रचनाकार=अज्ञात }} {{KKLokGeetBhaashaSoochi |भाषा=ब्रजभाष...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

कृष्ण ने कैसौ जुलम गुजारौ, मेरी चूँदर पे रंग डारौ॥ टेक
रस्ता लई रोक हमारी, मारी भर-भरकै पिचकारी,
उत्पात करौ है भारी, कीनी कैसी हुशियारी। लई अकेली
घेर, न कीनी देर, श्याम गयौ आई, मो भोरी सखी की एक
पेश नहीं खाई। गयौ पिछारी ते ऊधम करके मोते
बजमारौ। मेरी.॥ अब मोकूँ घर जानों, वहाँ लड़े सास
सच मानो, जल्दी ते बताय बहानों, जाते मिले न मोय
उरिहानो, चोली में पड़ गये दाग, तुरन्त गयौ भाग, कियौ
छल यानै, ऐसौ जसुदा कौ लाल एक नहीं मानें। जब देखूँ
तब खड़ौ अगारी, रस्ता रोक हमारौ॥ मेरी.॥ ये नित
नये फैल मचावै, नांय दहसत मन में खावै, लै ग्वालन कू
संग आवै, मेरे लाल गुलाल लगावै। कहते में आवै लाज,
कहूँ कहा आली, सखी सुन प्यारी। मेरौ लीनों अंग टटोर
झटक लई सारी। रंग बिरंगी करी कुमकुमा तान बदन पै
मारौ॥ मेरी.॥ अब सब मिल सलाह बनाऔ, मोहन कूँ
यहाँ बुलाऔ, ज्वानी को मजा चखाओ, सब बदलौ लेऔ
चुकाय सभी हरसाय, करौ जाकी ख्वारी, कर सोलह सिंगार
हंसौ दै तारी। ‘नारायण घनश्याम’ भयौ घट-घट कौ
जानन हारौ॥ मेरी.॥