भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

के ईचरज है / कृष्ण वृहस्पति

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:11, 12 जून 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सावण री बीं रात
तूं पै'ली बार
मेह रै मिस
जद
उतरी ही म्हारै आंगणै।

म्हारी कविता रा
स्सै कागद
उण झिरमिर सूं
हरया हुग्या हा
अर
बरसां सूं सूंकी पड़ी
सबदा री नद्यां
भरयाई ही भावां सूं।

चैत रै उण दोपारै पछै
काई ठाह हो
कै नई आवैली
सुख री कोई सिंइया।
ईचरज तो है कै
लगोतार
इण तपतै तावड़ै सूं
ना तो सूखी भावां री नदियां
अर नाई ज
काळा पड़या
म्हारी कविता रा कागद।