भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोई मौक़ा नहीं मिलता हमें अब मुस्कुराने का / आलम खुर्शीद

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:13, 29 जनवरी 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आलम खुर्शीद |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> कोई मौक़ा नहीं मि…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोई मौक़ा नहीं मिलता हमें अब मुस्कुराने का
बला का शौक़ था हम को कभी हँसने-हँसाने का
 
हमें भी टीस की लज्ज़त पसंद आने लगी है क्या
ख़याल आता नहीं ज़ख्मों प अब मरहम लगाने का
 
मेरी दीवानगी क्यों मुन्तज़िर है रुत बदलने की
कोई मौसम भी होता है जुनूँ को आज़माने का
 
उन्हें मालूम है फिर लौट आएंगे असीर उनके
खुला रहता है दरवाज़ा हमेशा क़ैदखाने का
 
चटानों को मिली है छूट रस्ता रोक लेने की
मेरी लहरों को हक़ हासिल नहीं है सर उठाने का
 
अकड़ती जा रही हैं रोज़ गर्दन की रगें आलम
हमें ए काश! आ जाए हुनर भी सर झुकाने का