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कौआ / मधुसूदन साहा

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कौआ रोजे जावे छै
सखरी-मखरी खावै छै।
कहियो बेठै छप्पर पर
कहियो नैका टप्पर पर
कहियो उतरी अंगना में
सुख-सन्देश सुनावै छै।

ठोचकोॅ मारै ढेरी में
भरलोॅ सूप-चँगेरी में
मौका मिलथैं मुनिया के
बिस्कुट तुरत उड़ावै छै।

कौआ बड़ा सयानोॅ छै
एक आँख के कानोॅ छै
साँझ-सबेरे आवी केॅ
काकी कॅे फुसलावै छै।

जखनी कौआ ‘काँव’ करै
काकी बाहर पाँव धरै
बौआ केॅ दुलरावै लेॅ
शायद काका आवै छै।