भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कौन इसे समझ सका? / पल्लवी मिश्रा

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:55, 8 फ़रवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पल्लवी मिश्रा |अनुवादक= |संग्रह=इ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मकसद है क्या इसका? क्या फलसफा है जिन्दगी का?
दावे तो किए हैं कइयों ने, पर कौन इसे समझ सका?

किसी ने इसे सफर कहा, किसी ने कहा मंजिल;
किसी ने इसे भँवर कहा, किसी ने कहा साहिल;

तुम कहते हो शतरंज की बाजी, कभी जीत हुई, कभी मात हुई;
कभी बनी दोपहर यह तपती, कभी रिमझिम बरसात हुई,

किसी ने कहा यह स्वप्न है, बस नींद खुली और टूटेगा,
हम उस जहां के मुसाफिर हैं, यह जिस्म यहीं पर छूटेगा;

कहे कोई यह सत्य नहीं, उस पार है क्या, हम क्या जानें?
इस पार जो हम पर गुजर रही है, हम उसको सपना क्यों मानें?

यह तो अनमोल अमानत है, संघर्ष की एक कहानी है;
वह दुनिया तो अनदेखी है, यह जानी-पहचानी है;

इक अद्भुत अहसास है यह, आँसू है, मुस्कान कभी,
दुःख-सुख की यह आँख-मिचौनी, मुश्किल है, आसान कभी;

कभी रहस्य का पर्दा है, कभी खुली किताब है यह,
कभी चुभन काँटों की है, कभी सुर्ख गुलाब है यह;

मुश्किल इसे समझ पाना, मुश्किल इसे है समझाना,
तुम चाहे कुछ भी कह लो, नेमत खुदा की हमने माना।