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क्या फ़क़त तालिब-ए-दीदार था मूसा तेरा / शाद अज़ीमाबादी

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क्या फ़क़त तालिब-ए-दीदार था मूसा तेरा
वही शैदा था तिरा मैं नहीं शैदा तेरा

दीदा-ए-शौक़ से बे-वजह है पर्दा तेरा
किस ने देखा नहीं इन आँखों से जल्वा तेरा

ख़ुद नज़ाकत पे न क्यूँ बोझ हो पर्दा तेरा
क्या किसी आँख ने देखा नहीं जल्वा तेरा

मिट गई शोरिश-ए-तूफ़ान-ए-हवादिस ऐ मौज
अब वही तू वही बहता हुआ दरिया तेरा

चैन से शहर-ए-ख़मोशाँ में हर इक सोता है
आसरा सब को है ऐ वादा-ए-फ़र्दा तेरा

मंज़िलत एक की भी होगी न वैसी ब-ख़ुदा
हश्र में आएगा जिस शान से रूस्वा तेरा

ज़िंदगी कहती है अरमाँ कोई अब है न उम्मीद
कब तलक साथ करूँ मैं तन-ए-तन्हा तेरा

बे-सबब मेरी ख़मोशी नहीं ऐ शाहिद-ए-हुस्न
दामन-ए-सब्र से ढँकता नहीं पर्दा तेरा

यूँ हबाबों का न दिल तोड़ ख़ुदा-रा ऐ मौज
इन्हीं क़तरों के तो मिलने से है दरिया तेरा

वही रंगत वही ख़ुशबू वही नाज़ुक-बदनी
फूल ने नक़्श उतारा है सरापा तेरा

तुझ से मिलने का जो है शौक़ तो दर दर न फिरे
पाँव तोड़े हुए बैठा रहे शैदा तेरा

ऐ गुल आती है ख़िज़ाँ बाग़ में ठहरा न मुझे
देखूँ इन आँखों से उतरा हुआ चेहरा तेरा

काश ज़ाहिद रूख़-ए-रौशन से उठा लें वो नक़ाब
फिर तो कुछ रिंद की रिंदी है न तक़्वा तेरा

अपने मय-ख़ाने से घबरा के मैं बाहर आया
जब हरम से कोई निकला न शनासा तेरा

उस पे क्या ज़ोर भला जिस पे हो उस का क़ाबू
चश्‍म-ए-शौक़ अपनी सही दिल तो है शैदा तेरा

जुस्तुजू शर्त है मिल जाएगा ज़ीना भी ज़रूर
सामने है नज़र-ए-शौक़ के मुखड़ा तेरा

वुसअत-ए-क़दरत-ए-हक़ होगी न महदूद कभी
नहीं मिलने का सिरा ज़ुल्फ़-ए-चलीपा तेरा

बज़्म-ए-आख़िर है तक़ाज़ा न कर ऐ महफ़िल-ए-शौक़
अब कहाँ साफ़ भला साग़र ओ सहबा तेरा

‘शाद’ ग़ज़लें नहीं आयात-ए-ज़ुबूर इन को समझ
लहन-ए-दाऊद से कुछ कम नहीं नग़्मा तेरा

अब जवानी की उमंगें न उमंगों की ख़ुष्ी
‘शाद’ को है फ़क़त ऐ मौज सहारा तेरा