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क्यों खड़ी हम ने की हैं दीवारें / जतिन्दर परवाज़

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क्यों खड़ी हम ने की हैं दीवारें
दूर जब कर रही हैं दीवारें

जैसे कोई सवाल करता है
इस तरह देखती हैं दीवारें

अब मुलाक़ात भी नहीं मुमकिन
दरमियाँ आ गई हैं दीवारें

इक झरोका भी इन में रख लेना
रौशनी रोकती हैं दीवारें

बारिशों ने गिरा दिया छप्पर
सिर्फ़ अब रह गई हैं दीवारें

लग के दीवानों-ओ-दर से रोता हूँ
और मुझे देखती हैं दीवारें

कितना दुशवार है सफ़र 'परवाज़'
हर क़दम पर उठी हैं दीवारें