भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़ून ओढे़ हुए हर घर का सरापा निकला / मज़हर इमाम

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:50, 21 दिसम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मज़हर इमाम |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> ख़ू...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ख़ून ओढे़ हुए हर घर का सरापा निकला
आप के शहर का अंदाज निराला निकला

छू के इक शख़्स को परखा तो मुलम्मा निकला
उस को मैं कैसा समझता था वो कैसा निकला

रूह वीरान मिली रंग परीदा निकला
उस को नज़दीक से देखा तो ज़माना निकला

सच के सहरा में उन्हें ढूँड के थक-हार गए
झूट के शहर में यारो का बसेरा निकला

ख़ुश हो ऐ धूप के नेज़ो से झुलसने वालो
चाँद के दोश पे सूरज का जनाज़ा निकला

जिस के कतरा के निकलते रहे बरसों सर-ए-राह
उस से कल हाथ मिलाया तो अपना निकला

कहीं सहरा में भी डस ले न हमीं सैराबी
रेत के बत्न से फुंकारता दरिया निकला

नर्म-रौ था तो सभी राह से मुँह मोड़ गए
संग उठाया तो मिरे साथ ज़माना निकला

वादियाँ लफ़्ज़ ओ मआनी की तह-ए-आब हुईं
किन पहाड़़ों से ख़यालात का झरना निकला