भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खातिर कर लै नई गुजरिया / ब्रजभाषा

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:35, 27 नवम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKLokRachna |रचनाकार=अज्ञात }} {{KKLokGeetBhaashaSoochi |भाषा=ब्रजभाष...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

खातिर कर लै नई गुजरिया, रसिया ठाड़ौ तेरे द्वार॥ टेक

ये रसिया तेरे नित न आवै,
प्रेम होय जब दर्शन पावै,
अधरामृत कौ भोग लगावै।
कर मेहमानी अब मत चूकै, समय न बारम्बार॥ 1॥

हिरदे कौं चौका कर हेली,
नेह कौ चन्दन चरचि नवेली,
दीक्षा लै बनि जइयो चेली।
पुतरिन पलंग बिछाय पलक की करलै बन्द किबार॥ 2॥

जो कछु रसिया कहै सौ करियो,
सास-ससुर को डर मत करियो,
सोलह कर बत्तीस पहरियो।
दै दै दान सूम की सम्पति, जीवन है दिन चार॥ 3॥

सबसे तोड़ नेह की डोरी,
जमुना पार उतर चल गोरी,
निधरक खेलौ करियो होरी।
श्याम रंग चढ़ि जाय जा दिना है जाय बेड़ा पार॥ 4॥