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खिड़कियाँ खोल दो / भागीरथ मेघवाल

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वक़्त के सामने
दीवार बनकर
खड़े मत रहो।
लकीर के फ़क़ीर बनकर
अड़े मत रहो।

बन्दरिया के लिपटाये रहने से
उसका मरा बच्चा जी तो नहीं जाता!
सड़कर-गलकर
उसका अस्तित्व घुलकर
बह जाता है
समय के साथ।

तुम्हारी तो नाक भी है
और दिल और दिमाग़ भी है
फिर क्यों सड़ाँध को
अपनाए हुए हो?
इनसान को इनसानियत से
बेदख़ल करने वाला मनु
आज भी तुम्हारे लिए
पूजित क्यों है?
न्यायालय के ऐन सामने
तुमने
अन्याय के इस प्रतीक की प्रतिमा लगाकर
किस समझ और प्रगतिशीलता का
परिचय दिया है?
इतिहास
मात्र पढ़ने और डिग्रियाँ लेने की
वस्तु नहीं होती मित्रो!

वह तो सबक़ और सीख का
एक आईना है
अपनी पराजयों और
पिछड़ेपन का प्रतिबिम्ब
इसमें देखकर भी
फूट और विद्वेष के जनक हो तुम
नहीं पहचान पाते तो
तुम्हें क्या कहें?

इतना ही कहूँगा
वक़्त के सामने
दीवार बनकर
खड़े मत रहो
उसके किसी झोंके से
ध्वस्त और भूसात होने से पहले
खोल दो खिड़कियाँ
दिल की और दिमाग़ की भी
आने दो ताज़ा हवा
  
ताकि सड़ाँध से घुट-घुट कर
जीने से बच जाएँ
हमारी आने वाली पीढ़ियाँ!