भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खिली सरसो / जगदीश गुप्त

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:46, 14 सितम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश गुप्त |संग्रह= }} <Poem> खिली सरसों, आँख के उस पा...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खिली सरसों, आँख के उस पार,
कितने मील पीले हो गए?

अंकुरों में फूट उठता हर्ष,
डूब कर उन्माद में प्रतिवर्ष,
पूछता है प्रश्न हरित कछार,
कितने मील पीले हो गए?

देखकर सच-सच कहो इस बार,
कितने मील पीले हो गए?

एक रंग में भी उभर आतीं,
खेत की चौकोर आकृतियाँ,
रूप का संगीत उपजातीं,
आयतों की मौन आवृतियाँ,

चने के घुंघरू रहे खनकार,
कितने मील पीले हो गए?
मटर की पायल रही झनकार
कितने मील पीले हो गए?

पाखियों के स्वर हवा के संग,
आँज देते बादलों के अंग,
मोर की लाली हुई लाचार,
कितने मील पीले हो गए?

देखती प्रतिबिम्ब रूककर धार,
कितने मील पीले हो गए?