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खुद तो मैली की न चुनरिया / सच्चिदानंद प्रेमी

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क्यों बैठी नाराज प्रिये तू-
खुद तो मैली की न चुनरिया!
                 
                  मैं अपने घर में थी रहती,
                  जाने क्या तू बाहर कहती?
                  प्रीत-रीत से अनजानी मैं-
                  मन-ही-मन सब बाधा सहती!
 
मैं तो थी निर्दोष सारिका-
नोंक-झोंक कुछ सीख न पाया,
मुझे बुलाकर किया अचानक
जादू तेरी झुकी नजरिया!

                   कहाँ-कहाँ क्या चले फसाने?
                   टूटे दिल के लाख बहाने;
                   पनघट पर के भी परिरम्भन
                   लगते है सब अब बेगाने!

मैं खुश थी अपनी गुदरी में-
लेकिन तुमको ठीक न भाया;
चोल रंग में चोली रंग दी
बनी तभी से प्राण-पियरिया!

घर की मटकी-क्षीर न भावे,
छाछ दिखा के नाच नचावे ;
गोप-गोपियों के पहरे में-
कौन कन्हैया को समझावे?

महलों के ऐश्वर्य न भाते-
राज मार्ग भी बंद हुआ है!
खिंच रही रह-रह अंतर को-
मरघट की एकांत डगरिया!
उसी क्षितिज पर यौवन पलता-
                     जिस पर सूरज कभी न ढलता,
                     जहाँ प्रीति-घनसार अहनिर्श-
                     नयनों में चुपचाप पिघलता!

किसे कहूँ सूने प्राणों में-
विरहानल अविराम धधकता!
मन की चंचल चिड़ियाँ भागी-
बीत चली बदनाम उमरिया!

धीरे-धीरे दर्द ह्रदय का-
                      करता है संस्पर्श मलय का,
प्रेमिल-छण का दृश्य बिहँसता-
                       अंकित है जो विरह-प्रणय का!

पाप-पुण्य सबका है लेखा-
सब कुछ मन से सदा परेखा!
मिला न ऐसा कोई जग में–
जिसकी हो बेदाग चदरिया!!