भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खैंची लबों ने आह कि सीने पे आया हाथ / 'अना' क़ासमी

Kavita Kosh से
Tanvir Qazee (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:40, 8 जून 2013 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खैंची लबों ने आह कि सीने पे आया हाथ ।
बस पर सवार दूर से उसने हिलाया हाथ ।

महफ़िल में यूँ भी बारहा उसने मिलाया हाथ ।
लहजा था ना-शनास<ref>अपरिचित</ref> मगर मुस्कुराया हाथ ।

फूलों में उसकी साँस की आहट सुनाई दी,
बादे सबा<ref>सुबह की ख़ुशबूदार हवा</ref> ने चुपके से आकर दबाया हाथ ।

यँू ज़िन्दगी से मेरे मरासिम<ref>तअल्लुक़ात</ref> हैं आज कल,
हाथों में जैसे थाम ले कोई पराया हाथ ।

मैं था ख़मोश जब तो ज़बाँ सबके पास थी,
अब सब हैं लाजवाब तो मैंने उठाया हाथ ।

शब्दार्थ
<references/>