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गंगा / 5 / संजय तिवारी

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कभी सुना
मेरे झरनों का निनाद
कभी सुना
मेरी धारा का कोई नाद
याकि
प्रवाहमय अनहद नाद
याकि
शारदा की असाध्य वीणा के सुर
या कि सुरों का कोई लय
याकि लय से उभरा ताल
याकि वेगवान होने का कोई कमाल
याकि
कलकल सरित संगीत
अलिखित कोई गीत
कैसे गुनगुना रही हूँ
किसको सुना रही हूँ
अविरल क्यो बहती हूँ
तुम्हारे साथ ही क्यो रहती हूँ
बार बार कुछ चुनती हूँ
सब सुनती हूँ
तुम्हारी चीख
चीत्कार
हुंकार
इनकार
स्वीकार
अंगीकार
अनादर
अस्वीकार
अधिकार
अनाधिकार
आभार
सत्कार
दुत्कार
सबसे टकराती हूँ
फिर भी गाती हूँ
सृजन के गीत
यही है मेरी अपनी
संवाद की रीति
मुझमे हर सुर समाया है
यह मेरी नही
इन सुरों की माया है
गीत सुनों
संगीत सुनों
या सृजन के राग
मेरा सबसे अनुराग
और विराग भी
जल ही नही हूँ
आग भी
जिस शक्ति पर तुम्हें अभिमान है
मैं ही उसकी जाया हूँ
शक्ति की अरूप काया हूँ
वही हूँ
हा मानव
अब वही नही हूँ
मैं जिस हाल में हूँ
जहा कही हूँ
जैसी आयी थी
वैसी नही हूँ।
मुझे भी लगने लगी है प्यास
पूरी करते तेरी आस
मैं तो मुक्ति की शक्ति हूँ
शाश्वत भक्ति हूँ
लेकिन तुम्हारे बंधन बढ़ते जाते
मेरे हर अंग पर चढ़ते जाते
बहुत घातक है उत्पात
हर धारा पर आघात
कब तक सहूँगी मैं
जब तक सृष्टि है
रहूँगी मैं
पर महानाद नही होगा
सुरों में सृजन का उन्माद नही होगा
टूट चुके होंगे
शारदा की वीणा के सभी तार
सोचना
बहुत विद्रूप बन जायेगा
तुम्हारा संसार।