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गंध तुम्हारी / संजीव ठाकुर

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हर रोज़
अटके रह जाते थे शब्द
ओठों में
तुमसे मिलकर आने के बाद
और छा जाती थी
गंध तुम्हारी– मेरे चारों ओर!
अंतिम बार
सीढ़ियों से उतरते
तुम्हारे पैरों की तरह
ठहर गए थे शब्द
रह गई थीं बातें शेष
जो कभी कही नहीं गईं!

गंध तुम्हारी
तुम्हारी अमानत तो न थी
फिर क्यों उसे
अपने में कैद कर लिया?...
मैं अब भी
महसूस करना चाहता हूँ
गंध तुम्हारी
अपने चारों ओर

आ-ओ!