भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गहराई में जाने की कला सीख रही है / कांतिमोहन 'सोज़'

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:04, 29 दिसम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कांतिमोहन 'सोज़' |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्रान्ति की चौथी बरसी 20-12 14 पर एक ग़ज़ल उसके नाम

गहराई में जाने की कला सीख रही है ।
वो साँवली सूरत जो मेरे मन में बसी है ।।

ये किसने बताया कि मैं ख़ुश हो नहीं सकता,
हाथ आय वही शाम जो कल बीत चुकी है ।

हर चीज़ जो कल लाल थी वो आज है पीली,
क्या आँख के परदे पे मेरे धूल जमी है ।

उम्मीद मेरा साथ निभाएगी कहाँ तक,
उम्मीद की एड़ी में कोई फाँस घुसी है ।

एक खेल है जारी मैं मज़ा लूट रहा हूँ
पसरा है यहाँ दर्द ख़ुशी भाग रही है ।।