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गांठ में बंद आखर / विपिन चौधरी

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मन का अपना फलसफा हुआ करता है
और मन की चमड़ी का अपना
चमड़ी चूँकि बाहर की हवा में साँस लेती हैं
सो हमारी दोस्ती उसी से है
मन के इसी फलसफे के भीतर
एक तख्ती के लिए भी जगह थी
जिस पर लाख साफ करने पर भी
शब्द मिटते नहीं थे
सफाई से महज़ धूल ही साफ होती है
या फिर मन भी?
कुछ साफ करने से मन का तापमान भी घटता बढ़ता है क्या?
निश्चित काम को दोहराते-फैलाते
पुरानी गठरी में रोज एक नई गांठ लगती जाती है,
पुरानी गांठ के ऊपर एक नई आंट
यह आज की बात है
उस वक्त की नहीं जब
शब्दों पर मोती टांकने
का जुनून हुआ करता था
और होड़ भी सबसे करीबी दोस्त से होती
तब कोई गांठ बंधती भी थी तो
दसों उँगलियों के संकोच के बिना
मास्टर की मार का जितना घमासान असर होता था
उतना आज पूरा का पूरा आसमान टूटने पर भी नहीं होता
रात के भोजन से भी ज्यादा जरूरी था
तख्ती के पुराने सूखे हुए हर्फों को साफ करना
मुल्तानी मिट्टी खत्म हो गई है तो
तेज दौड़ के साथ पड़ोसन काकी के घर से ला,
उससे तख्ती को मलना
सभी कामों का सरताज होता
कई गांठें तो आज भी मन में कुंडली जमाए बैठी हैं
तख्ती पर आड़े लेटे आखर आज भी लेटे हैं मुस्तैद
आज भी मन की वह गाँठ कसी कसाई
है ज्यों की त्यों
और तख्ती पर उकरे शब्द आज भी
गीले हैं