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गिरेबाँ/ सजीव सारथी

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मैं खुद हूँ,
अपना दुश्मन,
मैं हूँ,
यही दोष है

मेरे गिरेबाँ में,
गुनाहों की,
कोई कमी नहीं,
रोज मैं मैला करता हूँ,
अपने लहू को,
रोज जहर उगलता हूँ,
अपने मुँह से,
और नासूर फैलता है,
मेरी रूह में,
अपनी ही जंजीरों में,
बंध रहा हूँ खुद भी,
चाहे – अनचाहे,
जाने – अनजाने
रोज ही,
कितने अपराध करता हूँ

मुझमें चमक क्यों हो सोने की,
बस एक मिट्टी का पुतला हूँ,
मैं पाप की हांडी हूँ आखिर,
कोई अमृत का घड़ा तो नहीं...