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गीत 16 / अठारहवां अध्याय / अंगिका गीत गीता / विजेता मुद्‍गलपुरी

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राजस बुद्धि, सत्य नै जानै
कर्तव और अकर्तव के यथार्थ न ऊ पहचानै।

सत्य-अहिंसा-दया-शान्ति में संशय सदा विचारै
यग-दान-तप अरु अध्ययन के संशय आवि बिगारै
शास्त्र विदित सब शुभ कारज के हिय से कभी न मानै
राजस बुद्धि, सत्य नै जानै।

सत्य-दया-तप-दान, धर्म के चारो पग के तोरै
बोलै झूठ, कर्कशा बोलै, नेह न गुरु संग जोरै
नियम-धरम के करै उल्लंघन, खुद के नै पहचानै
राजस बुद्धि, सत्य नै जानै।

ईश्वर के अस्तित्व के ऊपर, हरदम प्रश्न उठावै
संगत करै स्वार्थी जन के, साधु संग नै भावै
माता-पिता और गुरुजन के, ऊ नै कभी गुदानै
राजस बुद्धि, सत्य नै जानै।

श्रेष्ठ जनोॅ के लाज न मानै, हरदम हँसि कै बोलै
देखै जो परदोष हमेशा, हिय नै कभी टटोलै
मन में नै संतोष, न इन्द्रिय में ही संयम आनै
राजस बुद्धि, सत्य नै जानै।

भोगोॅ में आसक्ति, देव पूजन में नै मन लागै
भय के भूत सतावै हरदम, अरु चित चंचल लागै
रखै स्वभाव सदा उस्सठ सन, श्रेष्ठ आप के मानै
राजस बुद्धि, सत्य नै जानै।

वर्जित काज करै से हँसि केॅ, पर के दोष निहारै
और, क्षमा के नाम न जानै, निरपराध के मारै
सुख में हँसै ठहाका दै कै, दुख में बैठल कानै
राजस बुद्धि, सत्य नै जानै।

श्रेष्ठ पुरुष के करै अनादर, अरु उपहास उड़ावै
तीरथ-दान-दया नै जानै, और शान्ति नै भावै
कृपण भाव राखै जे चित में, बन्धन-मोक्ष न जानै
राजस बुद्धि, सत्य नै जानै।