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गीत 17 / दोसर अध्याय / अंगिका गीत गीता / विजेता मुद्गलपुरी
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क्रोध मूढ़ भाव उपजावै।
मूढ़ भाव से ही उपजै भ्रम, भ्रम से बुद्धि नसावै।
बुद्धि नाश होतें प्राणी नै भूत भविष्य विचारै
भ्रम उपजै तब काज-अकाज रॅ नै निर्णय करि पारै
छिन्न-भिन्न स्मृति भेल तब महामोह के पावै
क्रोध मूढ़ भाव उपजावै।
राग-द्वेष के बस में करि, साधक इन्द्रिय के साधै
बाह्य विषय के त्याग करी, इन्द्रिय संयम से बाँधै
सकल विषय से पावि निवृति साधक सिद्ध कहावै
क्रोध मूढ़ भाव उपजावै।
अन्तःकरण प्रसन्न रखी, प्राणी सब टा दुख नासै
अरु प्रसन्न चित्त वाला के चित्त परमेश्वर में वासै
कर्मयोग के साधक सब टा मन के पाप नसावै
क्रोध मूढ़ भाव उपजावै।