भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गीत 18 / ग्यारहवां अध्याय / अंगिका गीत गीता / विजेता मुद्गलपुरी
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:22, 18 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजेता मुद्गलपुरी |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
अर्जुन उवाच-
कहलन अर्जुन हे जनार्दन अब स्थिर मन लागल
तोहर शान्त स्वरूप देखि के सहज-शान्ति अब जागल।
तोहर देखि मनुष्य रूप अब
सहज स्थिति के पैलौं,
मोह-भरम-भय सहजे विनसल
सब-टा दोष दुरैलौं,
सब-टा प्रश्न नशल मधुसूदन, सब-टा संशय भागल।
श्री भगवान उवाच-
कहलन श्री भगवान, पार्थ-
तों दुर्लभ दर्शन पैलेॅ,
रूप चतुर्भुज दर्शन करि केॅ
जीवन अपन जुरैलेॅ,
हय स्वरूप के दरस देवतो के दुर्लभ सन लागल।
नै वेदौ से, नै तप से
नै दान यग से सम्भव,
रूप चतुर्भुज के दर्शन
सब जन के लेल असम्भव,
से पावै जिनकर मन-चित निष्काम भक्ति में लागल।