गीत 27 / अठारहवां अध्याय / अंगिका गीत गीता / विजेता मुद्गलपुरी
श्री भगवान उवाच-
सब से अपनोॅ धर्म श्रेष्ठ छै
हे अर्जुन, चारो वर्णो में प्राणी के रोॅ कर्म श्रेष्ठ छै।
चरित धर्म निर्वहन करै से पाप दोष नै पावै
अनकर धर्म तियागि श्रेष्ठ जन चरित धर्म अपनावै
भाँति-भाँति के अनुष्ठान से, प्राणी के सद्कर्म श्रेष्ठ छै
सब से अपनोॅ धर्म श्रेष्ठ छै।
दोष युक्त भी सहज कर्म के नै त्यागै के चाही
जौन रीति से जे पूजै, तैसें निमहै के चाही
जैसे धुम्र आग मिललोॅ छै, किन्तु धुम्र से अग्नि श्रेष्ठ छै
सब से अपनोॅ धर्म श्रेष्ठ छै।
राज धरम लेॅ साम-दाम अरु बनिक धरम लेॅ दौलत
भिक्षु धरम छिक हाथ पसारन, कृषक स्वकाज बदौलत
जैसे पारिवारिक जीवन में, हर प्राणी लेॅ करम श्रेष्ठ छै
सब से अपनोॅ धर्म श्रेष्ठ छै।
जैसें कि गृहस्थ कर्म करि, संत भ्रष्ट कहलावै
संत कर्म करि केॅ गृहस्थ जन, नाम निकम्मा पावै
सैनिक हाथें अस्त्र, कृषक के हाथेॅ होॅर-कुदाल श्रेष्ठ छै
सब से अपनोॅ धर्म श्रेष्ठ छै।