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गीत 8 / सतरहवां अध्याय / अंगिका गीत गीता / विजेता मुद्गलपुरी
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ऊ तप तामस तप कहलावै
करै मूढ़तावश, हठवश तप, पर के सदा पिरावै।
मन वाणी आरो शरीर के, जे नै कभी तपावै
तप के मतलब, जे आगिन से तन के सदा तपावै
जोगी-हठ कहि के, जिनका आगू सब माथ झुकावै
ऊ तप तामस तप कहलावै।
करै दान सात्विक जन, दाता भाव न मन में आनै
सात्विक जन ही, देश काल अरु पात्र सदा पहचानै
प्रति उपकार कभी नै चाहै, सब पर नेह लुटावै
ऊ तप तामस तप कहलावै।
देतें दान कष्ट यदि उपजै, या कि अपेक्षा जागै
या फल ऊपर टँगल चित, या फल से अनुरागै
या कि दान में देल वस्तु के, रहि-रहि चिन्तन आवै
ऊ तप तामस तप कहलावै।