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गुलशन हो निगाहों में तो ज़न्नत न समझना / शकील बदायूँनी

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गुलशन हो निगाहों में तो जन्नत न समझना दम भर की इनायत को मोहब्बत न समझना

क्या शै है मता-ए-ग़मो-राहत1 न समझना जीना है तो जीने की हक़ीक़त न समझना

हो खै़र तेरे ग़म की कि हमने तेरे ग़म से सीखा है मसर्रत को मसर्रत न समझना

निस्बत2 ही नहीं कोई मोहब्बत को खि़रद3 से ऐ दिल कभी मफ़हूमे-मोहब्बत4 न समझना

ये किसने कहा तुमसे कि रूदादे-वफ़ा को5 सुनकर भी समझने की जरूरत न समझना

1. दुख-सुख रूपी पूंजी 2. सम्बन्ध 3. अक्ल 4. प्रेम का अर्थ 5. वफ़ा की कहानी को </poem>