भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गौरैया: दो / असंगघोष

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:57, 10 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=असंगघोष |अनुवादक= |संग्रह=खामोश न...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उड़ती हुई गौरैया
चली आती है
हमेशा की तरह
मेरे जेहन मे
चिड़ची करती
मन के कोने पर बैठ
अपने अक्स पर बार-बार चोंच मारती
चिल्ला-चिल्ला कर कहती मुझसे
निकल जाओ यहाँ सिर्फ में रहूँगी
तुम्हारे जैसे
अस्थिर अन्तर्मन की मुझे जरूरत नहीं है।