भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ग्रहदशा फिर गई है देश की / विजय चोरमारे / टीकम शेखावत

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:19, 1 जनवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजय चोरमारे |अनुवादक=टीकम शेखाव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ग्रहदशा फिर गई है देश की,
ग्रहदशा !

सलाह दी है न्यूमरॉलॉजिस्ट ने
देश के नाम में तबदीली की
संसद के विशेष अधिवेशन के लिए किया जा रहा है विचार
यज्ञ रचाया गया है दरबार हाल में
एन० सी० इ० आर० टी० में रच बस गई है
पुराण की संस्कार कथाएँ
इश्तिहार दिया है यू० जी० सी० ने
ज्योतिष-विज्ञान प्रोफेसरों के लिए

कुल मिलाकर सारे कुलपतियों ने
लगाया है ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग’ का कोर्स

इश्तिहार के गुलाबी पैकेज में
सिमट गई है सम्पादकों की प्रतिबद्धता
ए० बी० सी० का सर्टिफ़िकेट जोड़कर
ग्राहक आ गया है केन्द्रीय स्थान पर
इनसान तो छूट गया कब का पीछे

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भर रखा है
सामाजिक प्रबोधन का टेण्डर
नैतिकता के गुब्बारे को पिन चुभो दी है
कण्डोम के इश्तिहारों ने

सेंसेक्स के हाथों में हाथ डालकर
पसर गया है सेक्स अख़बार के पन्ने-पन्ने पर
टी० वी० के परदे पर उल्टा-सीधा बढ़ रहा है
सेंसेक्स का है कृत्रिम-अकृत्रिम उतार-चढाव
वियाग्रा का मार्केट परवान पर है

पन्द्रह अगस्त रह गया है सिर्फ़ ’ड्राय-डे’ बनकर
सरकारी कर्मकाण्ड
और रेडियो-टी० वी० के देशभक्ति भरे गीतों तक सीमित
‘मेरे देश की धरती सोना उगले...’

उगता कुछ भी नहीं, ज़हर के सिवा
बाक़ी जो बोया हुआ है जल जाता है मिटटी में ही
बोने वाला फाँसी लगा लेता है ख़ुदको
मेड़ वाले पेड़ पर

नहीं लगता रेडियो पर कभी
उसके पसंद का गीत
झण्डा उलटा फहरे, तो ही
आते है टी० वी० वाले दौड़े-दौड़े
किसी को भी कुछ नहीं पता
झण्डे को ऊँचा बनाए रखने के बारे में…

बजट का बैग लेकर आए हैं हँसते हुए
वित्तमन्त्री
कोट पर गुलाब का फूल लगाना भूल गए
या, जल गए हैं फूलों के सारे बागीचे?

बजट का भाषण भी लगता है शुष्क, सुखा कोरा
विदर्भ मराठवाड़ा की तरह

कविता की पंक्तियां भी नहीं ज़बान पर
सभी राजकवि कुडुक हो गए हैं
या किसी कवि को नहीं आता छेड़ने
आशा-भरा सुर ?

मूल मराठी से अनुवाद — टीकम शेखावत