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घुमक्कड़ रात / प्रहराज सत्य नारायण नंद / दिनेश कुमार माली

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रचनाकार: प्रहराज सत्यनारायण नंद(1943)

जन्मस्थान: घट घर साही, बालेश्वर

कविता संग्रह: अधपतनर छंद(1971), शवसंगम ओ अन्यान्य कविता(1976), सप्तदीपा वसुंधरा(1981), हिरण्ययेन पात्रेण(1990), वर्षार पादरे नूपुर(1992), रेशमीडोर रे बंधा गोटिए पक्षी(1994), नक्षत्र संगम ओ अन्यान्य कविता(1995),नील हंसर ज्वाला,भग्नांश ,जियंता शालिग्राम ।



..घुमक्कड़ रात, तुम सोई नहीं
आकाश की पलकों के तले
काशफूल जैसे छोटे बादल की तरह
तैर रही हो नक्षत्र नदी के आर-पार।
 
तुम सोई नहीं नील चेतना में
अनजाने हाथ पड़ गया मेरे सीने पर
मधुर स्वर, “मैं जिंदा हूँ।” “तुम जिंदा होंगे।”
.......जितने दिनों तक आपस में स्नेह, श्रद्धा हृदय में मौजूद होगी।
 
घुमक्कड़ रात, तुम्हारे नहीं चाहने पर भी
नक्षत्र चाहेंगे तुम्हारे मन के पास के
अवशिष्ट मुहुर्त को , जो खोजता है
मेरी और तुम्हारी सारी बातें
वास्तव में, विश्व के एकत्व को ।
 
तुम सोई नहीं अचानक हवा में खिड़की
हिलने के बाद हरी घास की लता बिछौने जैसी -सी चादर
नव आयु के स्पर्श में तुम थी मेरे नासा-रंध्र में
बेशुमार आत्माओं की तरह, शून्य में विभक्त होकर।
 
नील-चेतना के फूल आकाश की हाथ-पहुंच तक
पलकें रोककर रखती थी बची नींद का वजन
बादलों के नीचे अनिर्वाण इच्छा के इशारे
क्या तुम खोज रही थी अनागत मनुष्य का क्रम।
 
नदी की आवृत प्रवृत्ति की तरह रात टूटती है दीवारों में , छत में
नक्षत्र कभी- कभी छिटक जाता है क्षितिज से कई बार आसुओं की तरह
कई बार हंसती पंखुडियों से,
ओसकण की तरह पत्थर-मूर्ति की वीरान आँखों में।
 
अस्तित्व के सम्मिलित स्वाक्षर
प्यार नहीं पाकर भी लौट जाते हैं सारी धरती पर
तुमने तो मुझे प्यार किया अच्छा पाया था।
 
घुमक्कड़ रात, तुम सोई नहीं
बचे खुचे दिन मेरे अंदर
करवट बदलता है विश्वास के हर धक्के में
हल्के- हल्के विश्वास की डाल में।
 
अविभक्त चेतना की जल जाती है फूल झड़ी
जब जब छाया की आवृत आवर्त
लौट जाता हैं खिड़की दरवाजे की फांक से
तुम नहीं, मैं नहीं, घुमक्कड़ रात वाली
आकाश की शून्य कोठरी में।