भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चंद रुबाइयात / अमजद हैदराबादी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर ज़र्रेपै फ़ज़ले-किब्रिया<ref>ईश्वरीय कृपा</ref> होता है।
इक चश्मे-ज़दन में<ref>पलक मारते</ref> क्या से क्या होता है॥
असनाम दबी ज़बाँ से यह कहते हैं--
"वो चाहे तो पत्थर भी खु़दा होता है॥

हर गाम पै चकरा के गिरा जाता हूँ।
नक़्शे-कफ़े-पा बनके मिटा जाता हूँ॥
तू भी तो सम्भाल मेरे देनेवाले!
मैं बारे-अमानत में दबा जाता हूँ॥

इस जिस्म की केचुली में इक नाग भी है।
आवाज़-शिकस्ता दिल में इक राग भी है॥
बेकार नहीं बना है, इक तिनका भी।
ख़ामोश दियासलाई में इक आग भी है॥


शब्दार्थ
<references/>