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चक्रव्यूह / डी. एम. मिश्र

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माँ!
मुझ में और अभिमन्यु में
बस इतना अन्तर है-
वह चक्रव्यूह अपनी माँ के पेट में
सीख रहा था और
मैं तेरी पीठ पर बँधी गठरी में

रहमान का मुर्गा
जैसे घड़ी का एलार्म हो
ठीक चार बजे बाँग देता
तू जग जाती
पहले घर का सारा
कामकाज निपटाती
फिर जमींदार के खेतों में
दिन भर कोल्हू का बैल बनी रहती

बरसात में
फटे आँचल की छतरी में
जाड़े में
वर्षों पुरानी कथरी में
गर्मी में
धूप से चिटकती चमड़ी में
सॅभालकर
तू मुझे ऐसे पालती
जैसा गौरेया अपना अंडा सेती है

खाली पेट
पीठ पर भविष्य -सा मुझे
सिर पर वर्तमान -सा बोझ लादे
किलो भर मजूरी लिये
सूरज डूबे तू घर आती
तब चूल्हा फूँकती

पर
उस दिन तवा नहीं गरमाया
चारों ओर सिर्फ था धुआँ धुआँ
आसमान तक फैला हुआ
कसैला धुआँ
माँ
चक्रव्यूह तोड़ना मैं कैसे सीख पाता
जब तू बीच में ही सेा गयी