भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चक्रान्त शिला – 16 / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:14, 13 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poe...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं कवि हूँ द्रष्टा, उन्मेष्टा,
सन्धाता, अर्थवाह, मैं कृतव्यय।
मैं सच लिखता हूँ :
लिख-लिख कर सब झूठा करता जाता हूँ।

तू काव्य: सदा-वेष्टित यथार्थ
चिर-तनित, भारहीन, गुरु,
अव्यय। तू छलता है

पर हर छल में
तू और विशद, अभ्रान्त,
अनूठा होता जाता है।