भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चमकी कहीं जो बर्क तो एहसास बन गई / गणेश बिहारी 'तर्ज़'

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:48, 23 फ़रवरी 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गणेश बिहारी 'तर्ज़' }} {{KKCatGhazal‎}}‎ <poem> च...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चमकी कहीं जो बर्क तो एहसास बन गई
छाई कहीं घटा तो अदा बन गई ग़ज़ल

आंधी चली तो कहर के साँचें में ढल गई
बादे सबा चली तो नशा बन गई ग़ज़ल

उठ्ठा जो दर्दे इश्क़ तो अश्कों में ढल गई
बेचैनियाँ बढीं तो दुआ बन गई ग़ज़ल

अर्ज़े दकन में जान तो देहली में दिल बनी
और शेहरे लखनऊ में हिना बन गई ग़ज़ल