भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चराग़ की लौ में इन्किसारी, हवा के तेवर सिपाहियाना / ओम प्रकाश नदीम

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:58, 1 दिसम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ओम प्रकाश नदीम |अनुवादक= |संग्रह= }} ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चराग़ की लौ में इन्किसारी, हवा के तेवर सिपाहियाना ।
भरा पड़ा है इसी तरह की ज़िदों से मेरा उसूलखाना ।

हमारे एहसास-ए-आगही कि ये सादालोही नहीं तो क्या है,
उसे तो माना ही जिसको जाना, जिसे न जाना उसे भी माना ।

न तो हमारा ही चेहरा बदला न आईने ही में बदलाव आया,
फ़क़त मरासिम बदल गए हैं, फ़रेब देना -- फ़रेब खाना ।

विरासतों की तमाम दौलत लुटा चुका हूँ कभी का लेकिन,
अभी भी दुनिया को ये गुमाँ है, भरा हुआ है मेरा ख़ज़ाना ।

जहाँ भी देखी वफ़ा की मूरत, वहीं पे सर झुक गया हमारा,
अगर ये फ़ितरत है काफ़िराना, तो इसको रहने दो काफ़िराना ।

ये हमपियाला वो हमनेवाला, ये हमज़बाँ हैं वो हमवतन हैं,
"नदीम "कोई बताए हमको, है कौन रिश्ता बिरादराना ?