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चल कर सुलगती रेत पर पल-पल उभारें ज़िन्दगी / हरिराज सिंह 'नूर'

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चल कर सुलगती रेत पर पल-पल उभारें ज़िन्दगी।
हम इस तरह लड़ कर जिएं, अपनी सँवारें ज़िन्दगी।

ख़ुशबू हवा के दोश पर नग़्मा सरा हो चार सू,
वो आइने में झील के जब भी निखारें ज़िन्दगी।

सूरज थका-हारा बदन जब रख दे सतहे आब पर,
दिन के शिकस्ता क़ाफ़िले तुझको पुकारें ज़िन्दगी।

इस ज़िन्दगी में रहम की मिटती नहीं है हैसियत,
सब कुछ मिला हमको यहाँ कैसे नकारें ज़िन्दगी।

ग़ाफ़िल न हों कोई घड़ी, अपना धरम भूलें नहीं,
यूँ ‘नूर’ राहे-फ़र्ज से हँसकर गुज़ारें ज़िन्दगी।