भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चाची / रंजना जायसवाल

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:36, 7 दिसम्बर 2015 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ब्याह के आयी तब लाल गुलाब थीं
जल्द ही पीला कनेर हो गयी चाची
घर भर को पसन्द था
उनके हाथ का सुस्वाद भोजन
कढ़ाई-बुनाई-सिलाई
सलीका-तरीका
बोली-बानी
बात-व्यवहार
नापसन्द कि दहेज कम लायी थी चाची।
जाड़े की रातों में ठण्डे पानी से नहातीं
झीनी साड़ी पहनतीं
गूँज रहे होते जब कमरे में
चाचा के खर्राटे
बेचैनी से बरामदे में टहलतीं
जाने किस आग में जलती थीं चाची।
चाचा जब गये विदेश
एक हरा आदमी उनसे मिलने आया
बचपन का साथी है-कहकर जब वे मुस्कुरायीं
मुझे बिहारी की नायिका नजर आयीं चाची
उस दिन से चाची हरी होती गयीं
दोनों सुग्गा-सुग्गी बन गये
पर जिस दिन लौटे चाचा नीली नज़र आयीं चाची
सोची हूँ काश, मैं दे सकती पंख
खोल सकती खिड़की दरवाजे
उड़ा सकती सुग्गी को सुग्गे के पास।