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चारुकेशी / चन्दन सिंह

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बहुत लम्बे-घने थे उसके केश
उसके दुख की तरह काले
उसके सुख की तरह चमकदार

उसके केश
उसकी पीठ पर निरन्तर स्पर्श
जिसमें देखती रहती थी वह दिनभर
अपना होना
रात वे
उसकी नींद, उसके प्रेम में बिछते थे

उसे अच्छा लगता था
धूप में गीले केश सुखाना
और इसी बहाने
लाखों -करोड़ों वर्षों से तपते सूर्य को
थोड़ा आर्द्र करना

फिर वह कैंसर की मरीज़ हुई
तो कीमोथेरेपी ने उतरवा लिए
उसके सारे केश

उस रात
जब टीस की तरह लहकता था बादलों में रह-रहकर चान्द
वह
घुटनों-कुहनियों-जोड़ों में पाई जाने वाली तरलता-सी एक स्त्री
अब तक सब कुछ सह लेने वाली एक स्त्री
दर्द से तलफला कर
पहली बार चीख़ी
ज़िन्दगी भर की नहीं चीख़ी गई तमाम चीख़ें
ताख़ पर अख़बार के नीचे रखी गई चीख़ें
साड़ी की तहों में छिपाकर रखी गई चीख़े
रखकर भूल गई चीख़ें

उसकी चीख़ों में कुछ ऐसा था
कि खोखले होने लगे मेरे हाथ, मेरे पाँव
हड्डियों की सुरंगों में
गूँजती रही उसकी चीख़ें

पहली बार वह चीख़ी
पहली बार उसके मुँह से फूटा
एक ज़रूरी शब्द — नहीं
जीवन की पहली लड़ाई लड़ी उसने
जीवन के अन्त के ख़िलाफ़

मृत्यु को
पारे की फिसलती बून्द की तरह बेदाग़ पार कर
आई है वापस वह जीवन में आज
बच्चों की तरह ख़ुश होकर दिखाती है सबको
अँकुरों की तरह उग रहे
अपने नन्हें केश
सबसे सुन्दर केश
और एकदम जीवित
कि इनमें भी बहता है उसका ख़ून
मैंने कहा उसे
चारुकेशी ।