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चिंता-मनि मंजुल पँवारि धूरि-धारनि मैं / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

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चिंता-मनि मंजुल पँवारि धूरि-धारनि मैं,
कांच-मन-मुकुर सुधारि रखिबौ कहो ।
कहै रतनाकर वियोग-आगि सारन कौं,
ऊधौ हाय हमकौ बयारि भखिबौ कहौ ॥
रूप-रस-हीन जाहि निपट निरूपि चुके,
ताकौ रूप ध्वाइबौ औ’ रस चखिबौ कहौ ।
एते बड़े बिस्व माहिं हेरें हूँ न पैये जाहि,
ताहि त्रिकुटी मैं नैन मूँद लखिबौ कहौ ॥