भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चिड़ियाँ बोलें / सभामोहन अवधिया 'स्वर्ण सहोदर'

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:50, 21 अगस्त 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सभामोहन अवधिया 'स्वर्ण सहोदर' |अन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चिड़ियाँ चह-चूँ चह-चूँ बोलें,
घुलमिल करती खूब किलोलें!

जागें तड़के छोड़ बसेरा,
फेरा देवें हुआ सवेरा।
हँस-हँस चहक-चहक मुँह खोलें,
चिड़ियाँ चह-चूँ, चह-चूँ बोलें!

फुर फुर-फुर फुर उड़ें चहकती,
घर-घर, छत-छत फिरें लहकती।
रुनझुन, फुदक फुदक कर डोलें,
चिड़ियाँ चह-चूँ, चह-चूँ बोलें!

हिल-मिल, घूम-घूम सब आवें,
खिल-खिल, झूम-झूम सब गावें।
बोलों में मिसरी-सी घोलें,
चिड़ियाँ चह-चूँ, चह-चूँ बोलें!

छेड़ें कभी बैठ कर तानें,
भर लें फर-फर कभी उड़ानें!
अपना जोर हवा में तोलें,
चिड़ियाँ चह-चूँ, चह-चूँ बोलें!

-साभार: वीणा के गीत, सं. राष्ट्रबंधु, 1967