भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चुभती-चुभती सी ये कैसी पेड़ों से है उतरी धूप / गौतम राजरिशी

Kavita Kosh से
Gautam rajrishi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:13, 28 जनवरी 2016 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चुभती-चुभती सी ये कैसी पेड़ों से है उतरी धूप
आंगन-आंगन धीरे-धीरे फैली इस दोपहरी धूप

गर्मी की छुट्‍टी आयी तो गाँवों में फिर महके आम
चौपालों पर चूसे गुठली चुकमुक बैठी शहरी धूप

ज़िक्र उठा है मंदिर-मस्जिद का फिर से अखबारों में
आज सुब्‍ह से बस्ती में है सहमी-सहमी बिखरी धूप

बड़के ने जब चुपके-चुपके कुछ खेतों की काटी मेंड़
आये-जाये छुटके के संग अब तो रोज़ कचहरी धूप

झुग्गी-झोंपड़ पहुंचे कैसे, जब सारी-की-सारी हो
ऊँचे-ऊँचे महलों में ही छितरी-छितरी पसरी धूप

बाबूजी हैं असमंजस में, छाता लें या रहने दें
जीभ दिखाये लुक-छिप लुक-छिप बादल में चितकबरी धूप

घर आया है फौजी, जब से थमी है गोली सीमा पर
देर तलक अब छत के ऊपर सोती तान मसहरी धूप


(मासिक हंस-सितम्बर 2009, लफ़्ज़-सितम्बर 2011)