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चौराहे पर ज़िंदगी चार / रजनी अनुरागी

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चार

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लँगड़ी, लूली, कुबड़ी, अँधी की गई मनुष्यता
जीवन के सतरंगी उजालों से महरूम
तपती आँच में काले तवे में तब्दील होती,
एक-एक निवाले को मोहताज

नंग धडंग
भूख से बाहर आती अंतड़ियों पर पत्थर बाँधे
याचना से हाथ फैलाती
कभी पटरों पर
तो कभी जमीन पर घिसटती
लंबी-लंबी कारों और बसों के बीच
बचती - मरती
रोते-बिलखते मजबूर जीवन जीती
प्रगतिशील भारत की
लूली, लँगड़ी, अँधी, कुबड़ी तस्वीर दिखाती
मनुष्यता, मनुष्यता, मनुष्यता