भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छाँव सेंकते खान / सौरभ

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:54, 28 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सौरभ |संग्रह=कभी तो खुलेगा / सौरभ }} <Poem> छाँव सेंकत...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छाँव सेंकते खान
बैठे हैं अच्छे दिनों की धूप
   के इन्तज़ार में
कभी धूप भी सेंकते थे खान
जब सुखद दिनों की बर्फ़
   धूप को कर देती थी गुनगुना
तब नहीं भागते थे खान बसों कारों के पीछे
अपना बिल्ला पर्यटकों को दिखाते
आज बोझा ढोते खान
   पसीने से लथपथ
बर्फ़ के मौसम में भी
छाँव सेंकते हैं
दूरदर्शन पर भारत प्रधानमंत्री और पाक राष्ट्रपति
एक साथ बैठे दिखते हैं
साथ-साथ खाना खाते हैं
साथ-साथ संगीत सुनते हैं
सोचते हैं खान
  क्या कभी आयेगा वक्त
     धूप सेंकने का।