भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छिपना / मदन कश्यप

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:28, 23 मई 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार =मदन कश्यप }} {{KKCatKavita‎}} <poem> मुखौटों से झ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखौटों से झाइयाँ नहीं छिपतीं
पूरा का पूरा चेहरा छिप जाता है
सबको पता चल जाता है
कि सब कुछ छिपा दिया गया है

भला ऐसे छिपने-छिपाने का क्या मतलब

छिपो तो इस तरह कि किसी को पता नहीं
चले कि तुम छिपे हुए हो
जैसे कोई छिपा होता है हवस में
तो कोई अवसरवाद में

कुछ चालाक लोग तो
विचारधारा तक में छिप जाते हैं

कोई सूचनाओं में छिप जाता है
तो कोई विश्लेषण में
कोई अज्ञान में तो कोई इच्छाओं में

और कवि तो अक्सर अपनी कायरता में
छिपा होता है ।