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छोड़ह आब आश सखे, स्वाती ! / धीरेन्द्र

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छोड़ह आब आश सखे, स्वाती !
ई मेघ ने बरिसत एखनि आब,
जीवन लेबेटा इष्ट एकर,
अपराध भेल किछु हमरासँ
छी भोगि रहल उत्पीढ़न तएँ।
नहि दोष कनेको देब ककरो
दोषी हमरेटा जीवन अछि।

अछि छिना गेल सभ हँसी आब,
खाली जरबेटा अछि बाँकी !

ओम्हर लागल अछि,
अरे ! आगि,
एम्हर व्याधा अछि,
घेरि रहल।

बाँचत पुनि जीव कोनाकें कहु ?
जरि रहल दीप, अछि स्नेह खतम,
खाली जरइत जाइछ, बाती !
छोड़ह आब आश सखे ! वाती !!