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जंगल और खरगोश / राकेश रंजन

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एक रोज़ जंगल
जब नींद से उठा
तो काँप उठा
गोदी से उसकी
खरगोश कहीं ग़ायब था

जंगल ने तुरत उसे
यहाँ-वहाँ ढूँढ़ा
वह नहीं मिला
बेकल फिर कहाँ-कहाँ ढूँढ़ा
वह नहीं मिला

जंगल ने
झील की ख़ामोशी से पूछा
झरने की तेज़ गर्मजोशी से पूछा
नदी से, समन्दर से
गर्त से, पहाड़ से पूछा
जंगल ने
सारे संसार से पूछा

कि कहाँ गया
कहाँ गया प्राणों से प्यारा खरगोश
माखन वह
मिसरी वह
अमरित की धारा खरगोश

वैसे तो जंगल के आँगन में अब भी
भेड़ों की भीड़ें थीं
छोरों के घेरे थे
नागों के
चूहों के बिलों में बसेरे थे
सियारों के झुण्ड भी घनेरे थे
पर बे-खरगोश

जंगल की ज़िन्दगी अन्धेरी थी
जंगल के प्राण भी अनेरे थे
जंगल ने एक दिन
सितारों में ढूँढ़ा
पर वहाँ सिर्फ चौंध
और माया थी
तब उसने चाँद में तलाशा
पर उसमें खरगोश नहीं
जाने किन छवियों की छाया थी

अब जंगल हारा
कि कहाँ गया
आँखों का सपना वह
कहाँ गया
आँखों का तारा

अब जंगल
नाचता न गाता था
न ही खिलखिलाता था
जागता न सोता था
बिलख-बिलख रोता था

अब तो खरगोश हेत
जंगल के ख़्वाब भी
तरसते थे
बस उसके आँसू
धरती के दिल पर तेज़ाब-से
बरसते थे...