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जग में भटक गया / कुमुद बंसल

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1
सुकून न बिकता किसी हाट,
न बिकता किसी दुकान ।
छिपा बैठा गहरे मन,
वहीं इसकी धरा औ' आसमान।।
2
कभी चाह में अटक गया,
कभी शीशे-सा चटक गया।
परम को पाने चला था,
पर जग में भटक गया।।
3
मुझे बनाया, मुझमें रहे,
रहे और मिट गए।
कर्म-रूप में हूँ खड़ा,
कितने युग सिमट गए।।
4
पर्वत से निकला दरिया हूँ,
बहते रहना मेरा काम।
सागर में समा जाता मैं,
मिट जाता मेरा नाम।।