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जगदेव पंवार / गढ़वाली लोक-गाथा

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

पंच देवों की सभा लगीं छई,
शिव जी ध्यान मा छा, देवी छई पारवती,
सभा का मुकुट तिरलोकी नारैण
तब इना बैन<ref>शब्द</ref> बोलदा:
क्वी दुनिया मा इनो वीर भी होलो
जो शीश काटीक दान देलो?
जैन शीश को दान देण,
वैन गढ़वाल को राज लेण।
बखी बैठी छई चंचु भाट की बेटी कैड़ी कंकाली।
तब बोलदा भगवान, हे कैड़ी कंकाली

दुनिया को तोल लौ दू, पृथ्वी भाऊं<ref>भाव</ref>।
क्वी दुनिया मा शीश काटीक दान भी देलो।
तू रन्दी कंकाली मृत्यु मण्डल<ref>लोक</ref> मा।
मैं ल्यूलो भगवान पृथी को भेद,
तब कैड़ी कंकाली मृत्यु मण्डल ओंदी।
वै मलासीगढ़ में रन्द छयो वीं को बाबा<ref>पिता</ref> चंचु भाट,
कैड़ी कंकाली छै मलासीगढ़ को प्यारी,
मन की मयाली<ref>दयालु</ref> छैणै वा कैड़ी कंकाली,
भूकों तई खलौंदी छई, रोदौं चण्यौन्दी<ref>चुप कराना</ref>,
भूकों देखीक अन्न नी छै खान्दी
नंगों देखीक वस्त्र नी छै लान्दी।
मालसीगढ़ का लोक वीं तई तब-
आंख्यों मा पूजदा छया।
वखी वै गढ़ मा रन्द छयो एक बोतल भाट,
मति को होणू<ref>हीन</ref> छयों, पेट को नीनू<ref>खाली</ref>।
गरीब छयो भौत वो बेताल भाट,
चार नौना<ref>लड़के</ref> छया वैका<ref>उसके</ref>,
जिकुड़ो<ref>हृदय</ref> का जना चीरा<ref>घाव</ref>, भाग का जना कांडा<ref>काँटे</ref>।
भूख न रोंदा छा वो, वे सणी झुरोंदा<ref>तंग करना</ref>
तब ककाली मू वैन अपणी विपता गाये:
हे कैड़ी कंकाली, तू होली देवी स्वरूप,
मैं छऊँ किस्मत को हारो, विपता को मारो।
मेरा होला ये चार बेटा,
तू ऊं सणी भीक मांगीक पाली दे दूँ।
जिकुड़ी क्वांसी<ref>कोयला</ref> छै कंकाली की
वींन बालीक पालणा स्वीकार करयाल्या।
मैंन जाण होलो दुनिया को भाऊ<ref>भाव</ref> लेण,

तखी बिटी मांगीक भी लौलू यूं छोरौक।
कंकालीन तब हात धरे कमण्डल,
जोगीण को भेष बणाये, बभूत रमाए।
तब राज राज मा घूमदी कंकाली
घूमदी घूमदी ऐ गए धारा नगरी।
धारा नगरी मा रन्द छरूा जैदेव जगदेव पंवार,
जयदेव जगदेव होला पीठी<ref>सगे</ref> जौंला भाई,
जयदेव जेठू होलू जगदेव काणसो<ref>छोटा</ref>।
जयदेव बल मा किरपण होलो।
मंगदारों देखीक जो द्वारू लगौंदो।
जगदेव मन को टुलो<ref>उदार</ref> होलो, दिल को खुलो,
दानियों मा दानी होलो जगदेव पंवार।
कैड़ी कंकाली गै पैले जयदेव का पास,
द्वार पर जैक वींन अलख रमाई,
हे पहरदारू भीतर जैक बोला राजा मू इनो,
द्वार पर एक भिखारीन आई छ।
तब राजा जयदेव इनो कदो बूध<ref>युक्ति</ref>,
सभी मुसद्यों<ref>दरबारी</ref> तैं अफू<ref>अपने</ref> जना<ref>जैसे</ref> जामा<ref>वस्त्र</ref> पैरोंद,
कंकाली तब वै पछाणी नी पौन्दी-
तब बोलदू वो-हे कैडी कंकाली,
हमारू राजा शिकार जायूं छ।
तब हैंसदी हैंसदी कंकाली लौटीक ओन्दी:
जनू सीखी छ तनी तुमूक होयान।
तब सूणीयाले या बात जगदेवन,
शरील उठौगे, लाज न बैठीगे।
न्यूते तब वैन वा कैडी कंकाली,
मैं मुख को मांग्यू त्वै दान द्यौंलो।
इनो दानी छयो जगदेव पँवार

दणक वेको हात नी छौ टिटगदो,
कया देऊं, कया देऊँ मन करदू छऊ।
तब एक एक करी वैन पूछौन अपणी राणी,
बोला, वीं भिखारीणो कया देण, कया देण?
कैना रुप्या बोले, कैन बोले पैसा,
कैन हाथी बोल्या, कैन बोल्या घोड़ा।
वैकी छैः राण्योंन छैः जवाब दिन्या,
सातीं राणी छई चौहान्या<ref>चौहान वंश की</ref> राणी,
राजा की छोड़ी छै वा पुंगड़ी<ref>खेत</ref> जनी गोड़ीं,
पर वैन वा भी पूछी लीने।
तब बोल्दी वैकी वा चौहान्या राणी
तुम मेरा सिर का छतर छयाई,
तुम वोलदाई त स्वामी त मैं
अपणू सिर देणक भी त्यार छऊं।
तब राजान एक एक करीक
सबी राण्यों तई सिर देणक पूछे।
तब बोलदी राणी: हे राजा, तुमू क्या होये।
जिन्दगी से प्यारी कभी भिखारिण क्या होली?
चौहान्या राणीन तबी मर्दाना बस्तर पैरीन,
वीरु को भेष बणाये, सिरंगार सजाए,
हौर<ref>और</ref> राण्यों न समझे खेल तमाशा छ जाणी,
देखदीं कती सजीं ल जनी बुरांस-सी डाली।
मैं पराणू भीख दी सकदूँ राजा।
देखी जगदेव न चौहान्या राणी,
आंख्यों से आंसू छुटीन, जिकुड़ी से सांस,
तू धन्य छै चौहानी, तिन मेरो नाक रखे।
तब पंवार का भुजा बलकण लै गेंन,
तब छेत्री हंकार चढ़ीगे मरद।
औ तू कैडी कंकाली, तू पतरा लीक

तब पंवारन सोनामुठी<ref>सोने की मूठवाली</ref> तेग<ref>तलवार</ref> गाडे<ref>निकाली</ref>
देखण देखण मा ही तलवार
वैकी धौणी<ref>गरदन</ref> से पार होई गए!
कैडी कंकाली न सिर धरे कमण्डल पर
धारा नगरीन स्वर्ग चली गए।
बख वैठ्यां छया पंचनाम देवता,
सभा का मुकुट तिरलोकी नारैण छया।
तब बोलदी कंकाली-ल्य, नारैण।
यो छ जगदेव को सिर।
दुनिया को तोल लायूं मैं पृथी को भाऊ।
तब परसन्न होया तिरलोकी नारैण,
जगदेव होलू प्राणू को निरमोही।
तब पंचनाम देवता धारानगरी ऐन,
सिर पर धड़ लगाए तब देवतौन।
तब कैडी कंकाली चौहान्या राणी मू बोदी:
यो छ सिर जगदेव को, जीता<ref>जिंदा</ref> होई जालो।
तब चौहानी राणी ना करदी वीं कू-
दिन्यू दान नी लियेन्दू,
थुक्यूं जूक नी चाटेन्दू।
तब देवतौंन वीं धड़ पर ही हैकू<ref>अन्य</ref> सिर उपजाए।
सेता-पिंगला चौंल मारीन,
जीतों होई गए जगदेव पंवार।
देवतौंन तब वे गढ़वाल को राज दिने।
वचन चले दिल राई, जैसिंह सभाई,
वचन रहा जगदेव पंवार का जिसने
सिर काट कंकाली को दिया।
गढ़वाल देश को राज लिया।

शब्दार्थ
<references/>