भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जन्म-जन्मांतरों से / लीलाधर जगूड़ी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:49, 30 दिसम्बर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार = लीलाधर जगूड़ी }} {{KKCatKavita‎}} <poem> जन्म-ज...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जन्म-जन्मांतरों से सँवारी जाती दुनिया को
कुछ और तरह से भी सोचो जैसे तुमने सोचा
गुफ़ा के बदले मकान
मेले के अंदर बाज़ार और बाज़ार के अंदर मेला
(और अब मौल के अंदर बाज़ार और मेला दोनों)
जैसे फटे को सिलने के लिए शुरू में ही तुमने सोचा था
सुई-धागा
जैसे तुम पेड़ों में पहचान पाए गोंद और रेशा
जैसे बहने के डर से पानी पर चलने के लिए
तुमने सोची नाव
पैदल के बदले तुमने रची आधा ज़मीन पर आधा हवा में
चलने वाली साइकिल
सुई-धागे को भी और तरह से सोचते हुए तुमने
सिलाई-मशीन बना दिया

जन्म-जन्मांतरों से सँवारी जाती दुनिया को
कुछ और तरह से भी सोचो
जैसे ख़ुद दौड़ने के बदले तुमने सोचे पहिए
उड़ने के बदले हवाईजहाज
जैसे नदियों की ताक़त तुमने रातों को दमकाने से जोड़ दी

चाँद तक दूरियाँ पृथ्वी से सिल दीं
वैसे ही इस दुनिया को कुछ और तरह से भी सोचो
कि तुम्हीं वह एलियन हो जो बाहर से आए
और यहीं के होकर रह गए

धर्म की खोज में शुरू हुई इस दुनिया को
धर्मों की खामियों में सोचो
मनुष्य होने के धर्म को पृथ्वी सहित कैसे बचाया जा सकता है ?
बटोरी हुई खूबियों को और संजोये हुए मूल्यों को
ढहाकर बिख़राने वाले
संस्थाबद्ध धर्मों और ठेकाबद्ध आतंकों के बारे में सोचो
कोई और तरह का विस्फोटक ढूँढ़ो जो धर्म न हो

कुछ ऐसा सोचो कि श्मशानों और क़ब्रगाहों से
न पहचानना पड़े इस दुनिया को

‘ना’ के लिए ‘हाँ’ बोलने वालो
एक बार हाँ के लिए भी तो ना कहकर देखो ।।