भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जब हम मिले थे पियराते मौसम में / गीताश्री

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:41, 24 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गीताश्री |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब हम मिले थे पियराते मौसम में
तब हवा का रुख हमारी ओर था,
ये आँखों का भ्रम था या हवा का रिवाज,
कि जब-जब मौसम पियराता है,
वह साथ खड़ी दिखाई देती है,
ठीक वैसे जैसे पकी फ़सल के पास,
खड़ी होती है किसानिन...
फ़सल को पता नहीं होता कि,
उखड़ने वाली है उसकी ज़मीन,
छिन जाने वाला है आकाश,
चन्दन, रोली के धुँधलाते चिह्नों में,
ऊपर से सुनहरी दिखती बालियों में
बस जाती हैं टिसती यादें, पियराई-सी..।